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ऐसा हो कि ना-मौऊद हो | शाही शायरी
aisa ho ki na-mauud ho

नज़्म

ऐसा हो कि ना-मौऊद हो

शहराम सर्मदी

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वो ग़नी साअत कि हम
शाकी न हों

या यूँ कहें ख़ाकी न हों
सद-हैफ़ अफ़्लाकी न हों

काश उस ग़नी साअत में
इक कार-ए-ग़नीमत ऐसा हो

मिट्टी बदन की
रूह की तहज़ीब से हमवार हो

बेदार हो
ये नक़्श-पा-ए-रफ़्तगाँ

रौशन मिसाल-ए-कहकशाँ
सब रूह की तहज़ीब से बेदार

मिट्टी की नुमू है
अक्स-ए-हू है

रूह की तहज़ीब
या इक सिलसिला जिस में अदम को है सबात

(अहल-ए-ज़मीं
इक नारा 'दीवाने की बात')

और इस अदम से ता-सबात इक बार
ऐसा हो कि ना-मौऊद हो

यानी ख़ुदा मौजूद हो
ख़ाकी फ़क़त ख़ाकी हो अफ़्लाकी न हो

और कोई भी शाकी न हो