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ऐ निगार-ए-वतन | शाही शायरी
ai nigar-e-watan

नज़्म

ऐ निगार-ए-वतन

अख़्तर पयामी

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तुझे कुछ उस की ख़बर भी है ऐ निगार-ए-वतन
तिरे लिए कोई सीना-फ़िगार है अब भी

उठा चुका हूँ फ़रेब-ए-वफ़ा के दाग़ मगर
शिकस्ता दिल को तिरा ए'तिबार है अब भी

हज़ारों काहकशाँ ने बिछाए जाल मगर
मिरी नज़र में तिरी रहगुज़ार है अब भी

वो एक क़तरा जो टपका था तेरे दामन पर
वो एक नक़्श मिरा शाहकार है अब भी

वो एक लम्हा तिरे ग़म में जो गुज़ारा था
सुकून-ए-ख़ातिर-ए-बे-इख़्तियार है अब भी

वो किश्त-ए-दिल कि जिसे आँसुओं ने सींचा था
हरीफ़-ए-चश्मक-ओ-बर्क़-ओ-शरार है अब भी

ख़िज़ाँ ने यूँ तो कई सब्ज़-बाग़ दिखलाए
बहार मुंतज़िर-ए-नौ-बहार है अब भी

रविश रविश पे हैं चर्चे ख़िज़ाँ-नसीबी के
कली कली की नज़र सोगवार है अब भी

लहू टपकता है गुलचीं की आस्तीनों से
क़बा-ए-लाला-ओ-गुल दाग़दार है अब भी

बहुत क़रीब हैं अब भी क़फ़स की दीवारें
बहुत बुलंद सर-ए-शाख़-सार है अब भी