EN اردو
ऐ मुबारज़-तलब | शाही शायरी
ai mubaraz-talab

नज़्म

ऐ मुबारज़-तलब

फ़हीम शनास काज़मी

;

इश्क़ की तुंद-ख़ेज़ी के औक़ात आख़िर हुए
ऐ मुबारज़-तलब ज़िंदगी

अलविदा
अलविदा..... अपने औक़ात आख़िर हुए

ख़्वाब की लहर में
दर्द के शहर में

गर्द..... रख़्त-ए-सफ़र
दिल लहू में है तर

ज़िंदगी कट गई तेग़ की धार पर
सज्दा करते जबीं कितनी ज़ख़्मी हुई

और ख़ुदा आज तक हम से राज़ी नहीं
और ज़मीं सख़्त है

मंज़िलें गर्द हैं
बादलों की तरह ग़म बरसता रहा

चार जानिब यहाँ आग ही आग है
ऐ मुबारज़-तलब ज़िंदगी

प्यार के फूल ले
दर्द की धूल ले

मेरे होने के सब ख़्वाब लौटा मुझे
आख़िरी शाम है

आख़िरी म'अरका है
कि फिर इस के ब'अद

हम कहाँ तुम कहाँ
और हुए भी अगर तो फिर ऐसे कहाँ

आख़िरी वार तेरा है कारी बहुत
ग़म की शिद्दत से दिल मेरा भारी बहुत

वार
इक और वार

मौत के सर्द बोसे से सरशार दिल
तेरी क़ुर्बत की चाहत में मरता रहा

उम्र भर तुझ से जारी रहा म'अरका
ऐ मुबारज़-तलब ज़िंदगी

दिन भी ढल ही गया
शाम भी थक गई

रूह-ए-उम्र-ए-रवाँ
हो रही है अज़ाँ

शाम ढलने से पहले हमें अज्र दे
यूँ हमें अज्र दे

जाँ रहे ही नहीं
ख़स्ता तन में कहीं

हम कहें अलविदा
अलविदा

ऐ मुबारज़-तलब ज़िंदगी
इश्क़ की तुंद-ख़ेज़ी के औक़ात आख़िर हुए

ज़िंदगी तेरे लम्हात आख़िर हुए