ऐ हिज्र-ज़दा शब
आ तू ही मिरे सीने से लग जा कि बटे ग़म
एहसास को तन्हाई की मंज़िल से मिले रह
आवाज़ की गुमनाम ज़मीनों को मिले नम
आ कुछ तो घटे ग़म
इस साअत-ए-महजूर की फ़रियाद हो मद्धम
क्यूँ नौहा-ब-लब फिरती है महरूम-ए-मुख़ातब
ऐ हिज्र-ज़दा शब
देख आज तमन्नाओं की बे-सम्त हवाएँ
दिल-ए-शर्मिंदा-नज़र को
फिर ले के चली हैं वही बे-रख़्त हवाएँ
उसी जादू के नगर को
जिस ख़ाक पे उतरे थे मुरादों के सहीफ़े
सनकी थी जहाँ सब्ज़ हवा, कू-ए-वफ़ा की
महके थे जहाँ फूल-सिफ़त रंग किसी के
उस ख़ाक का हर रूप मिरे वास्ते ज़िंदान
कुछ रूठे हुए ख़्वाब हैं कुछ टूटे हुए मान
कुछ बरसे हुए अब्र हैं कुछ तरसे हुए लब
ऐ हिज्र-ज़दा शब
आ तू ही गले लग के बता कौन यहाँ है
जुज़ ख़ुद-सरी-ए-मौज-ए-हवा कौन यहाँ है
हमदर्द मिरा तेरे सिवा कौन यहाँ है
आ चूम लूँ आँखें तिरी रुख़्सार तिरे लब
ऐ हिज्र-ज़दा शब
नज़्म
ऐ हिज्र-ज़दा शब
अमजद इस्लाम अमजद