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ऐ दिल-ए-बेताब ठहर | शाही शायरी
ai dil-e-betab Thahar

नज़्म

ऐ दिल-ए-बेताब ठहर

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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तीरगी है कि उमंडती ही चली आती है
शब की रग रग से लहू फूट रहा हो जैसे

चल रही है कुछ इस अंदाज़ से नब्ज़-ए-हस्ती
दोनों आलम का नशा टूट रहा हो जैसे

रात का गर्म लहू और भी बह जाने दो
यही तारीकी तो है ग़ाज़ा-ए-रुख़सार-ए-सहर

सुब्ह होने ही को है ऐ दिल-ए-बेताब ठहर
अभी ज़ंजीर छनकती है पस-ए-पर्दा-ए-साज़

मुतलक़-उल-हुक्म है शीराज़ा-ए-अस्बाब अभी
साग़र-ए-नाब में आँसू भी ढलक जाते हैं

लग़्ज़िश-ए-पा में है पाबंदी-ए-आदाब अभी
अपने दीवानों को दीवाना तो बन लेने दो

अपने मय-ख़ानों को मय-ख़ाना तो बन लेने दो
जल्द ये सतवत-ए-अस्बाब भी उठ जाएगी

ये गिराँ-बारी-ए-आदाब भी उठ जाएगी
ख़्वाह ज़ंजीर छनकती ही छनकती ही रहे