मिले तो हम आज भी हैं लेकिन
न मेरे दिल में वो तिश्नगी थी
कि तुझ से मिल कर कभी न बिछड़ूँ
न आज तुझ में वो ज़िंदगी थी
कि जिस्म-ओ-जाँ में उबाल आए
न ख़्वाब-ज़ारों में रौशनी थी
न मेरी आँखें चराग़ की लौ
न तुझ में ही ख़ुद-सुपुर्दगी थी
न बात करने की कोई ख़्वाहिश
न चुप ही में ख़ूब-सूरती थी
मुजस्समों की तरह थे दोनों
न दोस्ती थी न दुश्मनी थी
मुझे तो कुछ यूँ लगा है जैसे
वो साअ'तें भी गुज़र गई हैं
कि जिन को हम ला-ज़वाल समझे
वो ख़्वाहिशें भी तो मर गई हैं
जो तेरे मेरे लहू की हिद्दत
को आख़िरश बर्फ़ कर गई हैं
मोहब्बतें शौक़ की चटानों
से घाटियों में उतर गई हैं
वो क़ुर्बतें वो जुदाइयाँ सब
ग़ुबार बन कर बिखर गई हैं
अगर ये सब कुछ नहीं तो बतला
वो चाहतें अब किधर गई हैं
नज़्म
अगर ये सब कुछ नहीं
अहमद फ़राज़