EN اردو
अधूरे मौसमों का ना-तमाम क़िस्सा | शाही शायरी
adhure mausamon ka na-tamam qissa

नज़्म

अधूरे मौसमों का ना-तमाम क़िस्सा

हसन अब्बास रज़ा

;

ये कौन जाने
कि कल का सूरज

नहीफ़ जिस्मों सुलगती रूहों पे
कैसे कैसे अज़ाब लाए

गई रुतों से जवाब माँगे
नज़र नज़र में सराब लाए

ये कौन जाने!
ये कौन माने

कि लौह-ए-एहसास पर गए मौसमों के जितने भी
नक़्श कंदा हैं

सब के सब
आने वाली साअत को आईना हैं

जो आँख पढ़ ले
तो मर्सिया हैं

ये कौन देखे ये, कौन समझे
कि सुब्ह-ए-काज़िब की बारगाहों में सर-ब-सज्दा अमीन चेहरे

कड़ी मसाफ़त पे पाँव धरने से पेशतर ही
गिराँ नक़ाबें उलट रहे हैं

रह-ए-रिया को पलट रहे हैं
ये कौन समझे ये कौन जाने!!