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अबू-लहब की शादी | शाही शायरी
abu-lahab ki shadi

नज़्म

अबू-लहब की शादी

नून मीम राशिद

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शब-ए-ज़फ़ाफ़-ए-अबू-लहब थी मगर ख़ुदाया वो कैसी शब थी
अबू-लहब की दुल्हन जब आई तो सर पे ईंधन गले में

साँपों के हार लाई न उस को मश्शातगी से मतलब
न माँग ग़ाज़ा न रंग रोग़न गले में साँपों

के हार उस के तो सर पे ईंधन
ख़ुदाया कैसी शब-ए-ज़फ़ाफ़-ए-अबू-लहब थी

ये देखते ही हुजूम बिफरा भड़क उठे यूँ ग़ज़ब
कि शोले के जैसे नंगे बदन पे जाबिर के ताज़ियाने

जवान लड़कों की तालियाँ थी न सेहन में शोख़
लड़कियों के थिरकते पाँव थिरक रहे थे

न नग़्मा बाक़ी न शादयाने
अबू-लहब ने ये रंग देखा लगाम थामी लगाई

महमेज़ अबू-लहब की ख़बर न आई
अबू-लहब की ख़बर जो आई तो साल-हा-साल का ज़माना

ग़ुबार बन कर बिखर चुका था
अबू-लहब अजनबी ज़मीनों के लाल ओ गौहर समेट कर

फिर वतन को लौटा हज़ार तर्रार ओ तेज़ आँखें पुराने
ग़ुर्फों से झाँक उट्ठीं हुजूम पीर ओ जवाँ का

गहरा हुजूम अपने घरों से निकला अबू-लहब के जुलूस
को देखने को लपका

अबू-लहब इक शब-ए-ज़फ़ाफ़-ए-अबू-लहब का जला
फफूला ख़याल की रेत का बगूला वो इश्क़-ए-बर्बाद

का हेयूला हुजूम में से पुकार उट्ठी अबू-लहब
तू वही है जिस की दुल्हन जब आई तो सर पे ईंधन

गले में साँपों के हार लाई
अबू-लहब एक लम्हा ठिठका लगाम थामी लगाई

महमेज़ अबू-लहब की ख़बर न आई