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अभी मैं ये सोच ही रहा था | शाही शायरी
abhi main ye soch hi raha tha

नज़्म

अभी मैं ये सोच ही रहा था

शहराम सर्मदी

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नियाज़-मंदों की भीड़ है इक
क़तार-अंदर-क़तार सारे खड़े हुए हैं

मैं फ़ासले पर हूँ सोचता हूँ
कि दस्त-ए-ख़ाली के इस सफ़र में

कमाना क्या और गँवाना क्या है
मैं इस मक़ाम-ए-अजीब यानी

''कमाना क्या और गँवाना क्या है'
प जब पहुँचता हूँ देखता क्या हूँ

मैं उसी दाएरे के ऊपर खड़ा हुआ हूँ
जहाँ मैं कल था

जो फ़र्क़ आया तो सिर्फ़ इतना
तब उस तरफ़ था

अब इस तरफ़ हूँ
अभी मैं ये सोच ही रहा था

'तो ज़िंदगी क्या सफ़र है बस इक तरफ़ तरफ़ का'
कि आ गया मोड़

इशारा था मेरे बरतरफ़ का