अभी
कुछ ख़राशें हैं चेहरे पे मेरे
अभी वक़्त के
सख़्त नाख़ुन की यादें
सताती हैं मुझ को डराती हैं मुझ को
मियाँ
मोम ख़्वाबों की मेरे पिघलती न कैसे
मिरी सम्त सूरज उछाला गया था
मैं शो'लों की दलदल में धंसने लगा था
मिरे दस्त-ओ-पा सब झुलसने लगे थे
बहुत शोर मुझ में उठा था
हर इक शय समाअ'त से ख़ाली
मुझे घूरती थी
नज़र में कोई रास्ता ही नहीं था
किसी से कोई वास्ता ही नहीं था
अचानक किसी ने पुकारा था मुझ को
उठो सुब्ह होने लगी है
सबा बाग़ में रंग बोने लगी है
हवा के दरीचे महकने लगे हैं
मनाज़िर फ़ज़ा के चमकने लगे हैं
मगर ये सदाक़त है 'अमजद'
अभी कुछ ख़राशें हैं चेहरे पे मेरे
अभी आइना मुज़्महिल है
अभी आइना मुज़्महिल है
नज़्म
अभी आइना मुज़्महिल है
ग़ुफ़रान अमजद