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आज़ादी का महल्ल-ए-वक़ूअ'-1 | शाही शायरी
aazadi ka mahall-e-waqu-1

नज़्म

आज़ादी का महल्ल-ए-वक़ूअ'-1

सय्यद काशिफ़ रज़ा

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मैं बाहर से आज़ाद नहीं
अंदर से हूँ

ख़्वाब में
इस से ज़्यादा

मैं ख़्वाब की आज़ादी
अपने अंदर ला कर

उस की सोच जीता हूँ
चाहता हूँ

उसे बाहर ला कर
उस की ज़िंदगी जीना

अगर ख़्वाब की
वाक़ियत फ़र्ज़ कर ली जाए

मेरी आज़ादी वाक़े' हो चुकी
मेरी आज़ादी वाक़े' हो चुकी

मैं अपनी आज़ादी में
वाक़े नहीं हुआ

मेरी आज़ादी वाक़े हो चुकी
मैं उस का महल्ल-ए-वक़ूअ

तब्दील करना चाहता हूँ
उसे अपने इर्द-गर्द

बसाना चाहता हूँ
मोहब्बत ख़्वाब से बाहर तलक

रस्ता बना सकती है
आज़ादी में वाक़े' होने के लिए

आज़ादी में वाक़े' होने के लिए
हमें अपने ख़्वाब

आपस में बाँध लेने चाहिएँ