आवारा-गर्द लम्हे यूँ बे-क़रार भटकें
जैसे परिंद प्यासे दीवाना-वार भटकें
बे-जान-ओ-बे-तकल्लुम इक आरज़ू है तन्हा
जंगल में जैसे कोई वीरान सी इमारत
बस्ती से दूर जैसे ख़ामोशियों का पर्बत
ताने खड़ा हो ख़ुद को जामिद सदी की सूरत
एहसास अपनी लौ पर यूँ तमतमाए जैसे
शो'लों पे चल रहा हो इक बे-लिबास जोगी
कहती है अक़्ल हम को जल्वत-पसंद रोगी
क्या साधुओं में ऐसी ज्वाला जगी न होगी
अक्सर समेटते हैं बिखरे हुए जुनूँ को
हम लोग आज भी हैं किस दर्जा ना-मुकम्मल
शैताँ सिफ़त शरारे ओढ़े धुएँ के कम्बल
दोशीज़गी ग़म को झुलसाएँ जब मुसलसल
चिंघाड़ती हैं साँसें सीनों में बे-तहाशा
जैसे अज़ीम इंसाँ पामाल हो गया हो
जैसे हर एक लुट कर कंगाल हो गया हो
इक मुख़्तसर सा पल भी सद साल हो गया हो
अजगर गुफा में लेटा शीरीनियाँ चबाए
और हम ये सूखे पत्ते अब तक बटोरते हैं

नज़्म
आवारा-गर्द लम्हे
चन्द्रभान ख़याल