मुझे मोजज़ों पे यक़ीं नहीं मगर आरज़ू है कि जब क़ज़ा
मुझे बज़्म-ए-दहर से ले चले
तो फिर एक बार ये इज़्न दे
कि लहद से लौट के आ सकूँ
तिरे दर पे आ के सदा करूँ
तुझे ग़म-गुसार की हो तलब तो तिरे हुज़ूर में आ रहूँ
ये न हो तो सूए-ए-रह-ए-अदम मैं फिर एक बार रवाना हूँ
नज़्म
आरज़ू
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़