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आरियों की पहली आमद हिन्दोस्तान में | शाही शायरी
aariyon ki pahli aamad hindostan mein

नज़्म

आरियों की पहली आमद हिन्दोस्तान में

वहीदुद्दीन सलीम

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वो देख कि मौजें रक़्स-कुनाँ हैं सतह-ए-ज़मीं पर गँगा की
नौ-वारिद आरिया हैरत में हैं देख के शान इस दरिया की

गंगोत्री से आती है चली, अठखेलियाँ करती धार इस की
आज़ादी है तेवर से अयाँ मतवाली है रफ़्तार इस की

उत्तर की तरफ़ जब उठती है इस क़ाफिल-ए-मग़रिब की नज़र
पड़ती हुई किरनें सुरज की हैं देखते बर्फ़ के तूदों पर

हर क़ुल्ला-ए-कोह-ए-हिमालिया पर अज़्मत के हैं बादल छाए हुए
सीनों को हैं ताने देव खड़े अम्बर से सिरों को मिलाए

बरगद के दरख़्तों से जंगल फैले हैं पहाड़ के दामन में
शाख़ें हैं जो उन की साया-फ़गन ज़ुल्मत का समाँ है हर बन में

फिरते हैं वो फ़ील-ए-मस्त यहाँ है देव का जिन के क़द पे गुमाँ
ये काली घटा जब दौड़ती है आता है नज़र हैबत का समाँ

हैं रंग-ब-रंग के फूल खिले ज़ीनत है चमन के शबाब उन का
खोला है नसीम-ए-सहर ने अभी किस शान से बंद नक़ाब उन का

आते हैं मुसाफ़िर हिन्द में जो ख़ैबर के दरों से उतर के अभी
देखे थे उन्हों ने लाला-ओ-गुल पामीर की वादी में न कभी

ताइर भी यहाँ पैदा हैं किए क़ुदरत ने अजब गुल-रंग-ओ-हसींं
गर ज़मज़मे उन की रौशनी सुन लें याद आए उन्हीं फ़िरदौस-ए-बरीं

इन्द्र के अखाड़े की परियाँ गाती हैं जो दिल-कश रागनियाँ
ये लोच सुरों में उन के नहीं ये सोज़ गुलों में उन के कहाँ

सूरज की चमकती हुई किरनें हैं छेड़ती ठंडी हवाओं को
भर देती हैं नूर-ओ-हरारत से बाग़ों को और उन की फ़ज़ाओं को

सोती हुइ सौतें चश्मों की उठती हैं सब आँखें मल मल कर
धारें हैं जो बर्फ़ के पानी की आती हैं पहाड़ों से चल कर

ऐ आरियों क़दम रखो इन हसन भरे गुलज़ारों में
जन्नत के मज़े लूटोगे सदा इस पाक ज़मीं की बहारों में

तुम गंग-ओ-जमन के किनारों पर शहर अपने नए आबाद करो
गा गा के भजन कर कर के हवन हो जाओ मगन दिल-शाद करो