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आराफ़ | शाही शायरी
aaraf

नज़्म

आराफ़

सय्यद मुबारक शाह

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सवालिया निशान की क़तार में खड़े हुए मुफ़क्किराे!
जवाब दो

वो कौन, कैसा, किस लिए, कहाँ पे, कब से, कब तलक?
सवाल-ए-शश-जहात का जवाब कोई अब तलक?

''मगर यहाँ कुशाद-ए-चश्म-ओ-लब किसी के बस में है
सवाल तक रसाई जब मुहाल है

तो हिम्मत-ए-जवाब किस के बस में है
वो किस की दस्तरस में है

जो मअरिफ़त के लब खुले
तो पत्थरों की बारिशों से सूलियाँ लहूलुहान हो गईं

अगर किसी पयम्बर-ए-अज़ीम की नज़र उठी
निगाह बाज़गश्त-ए-ना-मुराद की शिकस्तगी के वार से

बसीरतों के ज़ोम में बसारतें भी जल गईं
तो ठीक है

तुम्हें कुशाद-ए-चश्म-ओ-लब की लज़्ज़तों की क्या ख़बर
सो तुम हनूज़ बर्ज़ख़-ए-तज़ब्ज़ुब-ओ-गुमान में पड़े रहो

मुफ़क्किराे!
सवालिया निशान की क़तार में खड़े रहो