EN اردو
आख़िरी कोस | शाही शायरी
aaKHiri kos

नज़्म

आख़िरी कोस

सत्यपाल आनंद

;

आख़िरी कोस मुझे आज ही तय करना है
और इस लम्बे सफ़र का ये कड़ा कोस मुझे

इस क़दर लम्बा बढ़ाना है कि अब से पहले
जो भी कुछ गुज़रा है माज़ी में उसे फिर इक बार

हाज़िर-ओ-नाज़िर-ओ-मौजूद सा मैं झेल सकूँ
अर्सा-ए-ग़ायब-ओ-मा'दूम से इस लम्हे तक

वादियाँ झरने चरागाहें मवेशी पंछी
खेत खलियान छपर-खट मिरे घर का दालान

गाँव की गलियाँ मकाँ लोग दुकानें बाज़ार
और फिर शहर की सड़कें बसों कारों का शोर

उम्र बढ़ती हुई बचपन से लड़कपन की तरफ़
और लड़कपन की वो ना-पुख़्ता बुलूग़त जिस में

मुझ को एहसास हुआ था कि कोई और भी है
ज़िंदगी सारी जिसे साथ मिरे चलना है

कैसा शोरीदा-सर तूफ़ान था तुग़्यानी थी
जिस ने इक बावले इंसान को बे-रहमी से

दूर अनजाने से परदेस में ला पटख़ा था
और फिर पा-ब-रिकाब आगे ही आगे की तरफ़

सर पे सामान उठाए हुए बंजारों सा
डंडी पगडंडी सड़क नक़्ल-ओ-हमल हरकत-ओ-कोच

कैसी आयन्द-वुरूद थी ये मुहिम जो हिजरत
जिस में सीमाब क़दम चलता रहा हूँ बरसों

एक कोस और मुझे आज की शब चलना है
और इस रात फ़क़त अपनी ही सोहबत में अगर

जो भी मैं भोग चुका हूँ उसे सहबा की तरह
आख़िरी कोस के इस जाम में भर कर आनंद

एक लम्हा भी तवक़्क़ुफ़ न करूँ हाथ में लूँ
और इक घूँट मैं पी जाऊँ तो मेरा ये सफ़र

सुर्ख़-रूई से मुकम्मल हो मुझे सैर करे
आख़िरी कोस मुझे आज ही तय करना है