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आख़िरी दलील | शाही शायरी
aaKHiri dalil

नज़्म

आख़िरी दलील

अफ़ज़ाल अहमद सय्यद

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तुम्हारी मोहब्बत
अब पहले से ज़्यादा इंसाफ़ चाहती है

सुब्ह बारिश हो रही थी
जो तुम्हें उदास कर देती है

इस मंज़र को ला-ज़वाल बनने का हक़ था
इस खिड़की को सब्ज़े की तरफ़ खोलते हुए

तुम्हें एक मुहासरे में आए दिल की याद नहीं आई
एक गुम-नाम पुल पर

तुम ने अपने आप से मज़बूत लहजे में कहा
मुझे अकेले रहना है

मोहब्बत को तुम ने
हैरत-ज़दा कर देने वाली ख़ुश-क़िस्मती नहीं समझा

मेरी क़िस्मत जहाज़-रानी के कार-ख़ाने में नहीं बनी
फिर भी मैं ने समुंदर के फ़ासले तय किए

पुर-असरार तौर पर ख़ुद को ज़िंदा रक्खा
और बे-रहमी से शाइरी की

मेरे पास एक मोहब्बत करने वाले की
तमाम ख़ामियाँ

और आख़िरी दलील है