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आख़िरी बस | शाही शायरी
aaKHiri bus

नज़्म

आख़िरी बस

राजेन्द्र मनचंदा बानी

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आख़िरी बस
तैरती सी जा रही है

शब की फ़र्श-ए-मरमरीं पर
शबनम-आगीं धुँद की नीली गुफा में

बस के अंदर हर कोई बैठा है
अपना सर झुकाए

ख़स्तगी दिन की चबाए
क्या हुई इक दूसरे से बात करने की

वो राहत वो मसर्रत
आज दुनिया आख़िरी बस की तरह महव-ए-सफ़र है

सब मुसाफ़िर
क़ुर्ब के एहसास से ना-आश्ना बैठे हुए हैं

अब किसी को अजनबी होना बुरा लगता नहीं है