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आज फिर दर्द उठा | शाही शायरी
aaj phir dard uTha

नज़्म

आज फिर दर्द उठा

चन्द्रभान ख़याल

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आज फिर दर्द उठा दिल के निहाँ ख़ाने में
आज फिर लोग सताने को चले आएँगे

आज फिर कर्ब के शो'लों को हवा दूँगा मैं
और कुछ लोग बुझाने को चले आएँगे

आग से आग बुझी है न बुझेगी लेकिन
दर्द को आग के दरिया में उतरना होगा

आग और दर्द के मेआ'र परखने के लिए
इन अँधेरों की फ़सीलों से गुज़रना होगा

मैं अँधेरों की रिफ़ाक़त से नहीं हूँ बेज़ार
शाम-ए-तन्हाई अँधेरा भी भला लगता है

हैफ़ सद हैफ़ कि मुंकिर था ज़माना जिस का
आज वो जुर्म मकानों में हुआ लगता है

लाख कमरे को टटोला भी मगर कुछ न मिला
फ़र्श पर ख़ून की दो-चार लकीरों के सिवा

जंग और ज़ुल्म के असरार निहाँ ऐ ज़िंदाँ
जान पाएगा भला कौन असीरों के सिवा

दर्द दिल है कि भटकती हुई रूहों का जलाल
क़त्ल हो कर भी धड़कता है जो वीरानों में

मैं सुलगता ही रहा और वो अंदाज़-ए-जुनूँ
छुप गया आग लगा कर मिरे अरमानों में