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आज चली है हवा | शाही शायरी
aaj chali hai hawa

नज़्म

आज चली है हवा

आदित्य पंत 'नाक़िद'

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आज चली है हवा
मुद्दतों के बा'द

हयात से तअ'ल्लुक़ था जिस का
हर वो शय तरस गई

कि गोश को तनफ़्फ़ुस की
सरगम नसीब हो

सुनाई दे सरसराती सी एक आवाज़
कोई सरगोशी कोई दस्तक बन कर

आती जाती जो मेरे क़रीब हो
दस्त-ए-माज़ी से जोड़ अपने बाज़ू

याद-ए-अय्याम के आग़ोश में
गुम-गश्ता दीदा-ए-तर चल पड़ा

है एक तलाश में
या तो आँखों की नमी से छुटकारा मिले

या फिर दिल की उमीदें बर आएँ
लेकिन ये क्या कि

इस ना-मुराद खोज में
आँखें दर-ब-दर भटकती हुई

ख़ाली हाथ लौट कर
थकी-हारी घर आएँ

तभी चलने लगी हवा मेरे बाग़ में
दरख़्तों के पत्ते लरज़ने लगे

गुलों के हसीं लबों पर
तबस्सुम उगा

और एक नन्ही सी लौ जगी चराग़ में
खुली हवा में साँस लेने की ख़्वाहिश

दिल-ए-ना-साज़ में अरमाँ जगा गई
घुटन से तंग आ कर मैं ने

फिर खोली जो ज़ंजीर-ए-दर
कम्बख़्त हवा की सोज़िश

चश्म-ए-नम सुखा गई
और चराग़ों पर रक़्स करते

शरारों को बुझा गई