और फिर
रात की बिसात उलट गई
मुसाफ़िरों ने एक साल के
पुराने चेहरे फेंक कर
नए लगा लिए
कितने ख़ुश-नसीब हैं जिन के पास
कोई आइना नहीं
जिन के पास
वक़्त सिर्फ़ वक़्त है
कोई सिलसिला नहीं
भला नहीं बुरा नहीं
कितने ख़ुश-नसीब हैं
एक साल में
सब बदल गए
ज़मीं की कोख तुख़्म-रेज़ियों की मुंतज़िर है
पिछली फ़स्ल कट गई
रात की बिसात उलट गई
'सलीम' इक अज़ल की चीख़
रात की बिसात उलट गई
चलो समेट लें
झिलमिलाते अक्स पर निशाँ शबाहतें
बूँद अश्क की
चश्म-ए-मेहरबाँ से बूँद एक अश्क की
वर्ना रोज़-ए-हश्र
अपने अपने मरक़दों से
किस तरह उठाए जाएँगे
कैसा सानेहा अपने आप से
किस क़दर अलग हैं हम
कैसा सानेहा है ये
कैसा सानेहा है ये
सर्द रात
खिड़कियों में सर्द तीरगी
तीरगी के आइने तले
इक फ़ज़ा-ए-ला-मकाँ
अमीक़ किस क़दर अमीक़
बसीत किस क़दर बसीत
मेरी दस्त में से दूर
मेरी रूह पर मुहीत
शजर शजर में दश्त-ओ-कोह में रवाँ-दवाँ
हमारे जिस्म का लहू
एक सैल
सैल-ए-बे-कराँ
मुसाफ़िरों की भीड़ से अलग
मुझ से बे-ख़बर
तुम से बे-नियाज़
हमारे अक्स-ए-बे-हिजाब
दौर दौर पुर-फ़िशाँ
उन की अपनी ज़िंदगी
उन के ख़्वाब
इक किरन की छूट से
सब्ज़ सुर्ख़ नीलगूँ बनफ़शई
कितने रंग कैसे कैसे नक़्श-ए-ना-तमाम
जुम्बिश-ए-निगाह से बने
जुम्बिश-ए-निगाह से पिघल गए
नज़्म
आईने
क़ाज़ी सलीम