EN اردو
आईना-दर-आईना | शाही शायरी
aaina-dar-aina

नज़्म

आईना-दर-आईना

ख़लील-उर-रहमान आज़मी

;

मैं आज सवेरे जाग उठा
देखा कि है हर-सू सन्नाटा

चुप-चाप है सारा घर आँगन
बाहर से बंद है दरवाज़ा

सब भाई बहन बीवी बच्चे
आख़िर हैं कहाँ है क्या क़िस्सा

इतने में अजब इक बात हुई
नागाह जो देखा आईना

इक आदमी मुझ को आया नज़र
मुझ से ही मगर मिलता-जुलता

दो सींग हैं उस के सर पे उगे
ये देव है कोई या देवता

तुम कौन हो ये पूछा मैं ने
पर कोई न मुझ को जवाब मिला

मैं काँप उठा थर थर थर थर
सोचा कि करूँ झुक कर सज्दा

इतने में हुई इक आहट सी
मैं सुन के यकायक चौंक उठा

अब देर हुई उठिए पापा
हाँ मुझ को दफ़्तर जाना है

उस ख़्वाब का लेकिन क्या होगा