EN اردو
आहटें | शाही शायरी
aahaTen

नज़्म

आहटें

मुनीबुर्रहमान

;

गुज़र रहे हैं मिरी ज़िंदगी के शाम ओ सहर
गिनूँगा बैठा हुआ दाना दाना हर साअत

सदा लगाती गदायाना शाम आई थी
ये कोई दर न खुला

न कुछ जवाब मिला
निढाल दुबकी हुई सो रही है कोने में

धरा है क्या मिरी झोली में आहटों के सिवा
यही है ज़ाद-ए-सफ़र

यही मिरी सौग़ात
किसी को दूँ भी तो कोई भला न हो उस का

जो साथ क़ब्र में ले जाऊँ तो मलाल न हो
हर एक गाम पे लेकिन ये साथ आई हैं

यहाँ मैं ख़ुद नहीं पहुँचा ये मुझ को लाई हैं