तंहाई के सहराओं में
चलते चलते
अब तो मेरी
आँखों की वीरान गली से
पाँव के छाले
बह निकले हैं
इक मुद्दत से जिस्म की धरती
प्यासी है सूखे के कारन
जीवन के अँधियारे पथ पर
दूर तिलक सन्नाटा सा है
क़दमों की आहट भी नहीं है
नज़्म
आहट
असलम आज़ाद
नज़्म
असलम आज़ाद
तंहाई के सहराओं में
चलते चलते
अब तो मेरी
आँखों की वीरान गली से
पाँव के छाले
बह निकले हैं
इक मुद्दत से जिस्म की धरती
प्यासी है सूखे के कारन
जीवन के अँधियारे पथ पर
दूर तिलक सन्नाटा सा है
क़दमों की आहट भी नहीं है