मिरी परवाज़ ऊँची है
पहाड़ों पर
चट्टानों पर
कहीं तो आसमानों पर
फ़ज़ा-ए-बे-कराँ की वुसअतों में है मिरी मंज़िल
बहुत ही मावरा हैं उस जहाँ से ज़ेहन के हाले
ज़मानों पर लगा रक्खे हैं मैं ने सोच के ताले
हुदूद-ए-ला-मकाँ भी गूँजती है मेरे नालों से
कि मैं ने पा लिया इदराक को सारे हवालों से
नज़्म
आगही
नील अहमद