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आग़ाज़ | शाही शायरी
aaghaz

नज़्म

आग़ाज़

कफ़ील आज़र अमरोहवी

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किन ख़यालात में यूँ रहती हो खोई खोई
चाय का पानी पतीली में उबल जाता है

राख को हाथ लगाती हो तो जल जाता है
एक भी काम सलीक़े से नहीं हो पाता

एक भी बात मोहब्बत से नहीं कहती हो
अपनी हर एक सहेली से ख़फ़ा रहती हो

रात भर नाविलें पढ़ती हो न जाने किस की
एक जंपर नहीं सी पाई हो कितने दिन से

भाई का हाथ भी ग़ुस्से से झटक देती हो
मेज़ पर यूँ ही किताबों को पटक देती हो

किन ख़यालात में यूँ रहती हो खोई खोई