सुलगते हुए
मीठे जज़्बात
की आग से जिस्म
कुछ इस तरह तप रहा है
कि जी चाहता है नज़र जो भी आए
उसे अपनी बाँहों में कुछ ऐसे भेंचू
कि मेरे बदन में समा जाए वो यूँ
नज़र तक न आए
हटाऊँ जो बाँहें
मैं इस के गले से
तो ढेर एक मिट्टी का
क़दमों में पाऊँ
नज़्म
आग
अनवर मक़सूद ज़ाहिदी