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आदमी का नशा | शाही शायरी
aadmi ka nasha

नज़्म

आदमी का नशा

सईदुद्दीन

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दो शराबी दरख़्त
अपना बड़ा सर हिला हिला कर झूम रहे हैं

सूरज के जाम से
आज उन्हों ने

कुछ ज़्यादा ही चढ़ा ली है
अब वो

अपनी शाख़ों में बैठे
परिंदों की चहकार से ज़्यादा

सड़क पर चलते ट्रैफिक के शोर को
इंहिमाक से सुन रहे हैं

दोनों शराबी दरख़्त
जड़ों समेत

सड़क पर आ गिरे हैं
ट्रैफ़िक जाम हो जाता है

बसें, कारें
स्कूटर और साइकलें रुक जाती हैं

हॉर्न बजना शुरूअ हो जाते हैं
मगर नशे में धुत दरख़्त

जड़ों समेत
सड़क के बीचों बीच पड़े हैं

मैं ने दरख़्त से एक शाख़ तोड़ी
और सारी रात

अपने आस पास रेंगने वाले कीड़ों को
मारने में गुज़ार दी

सुब्ह दूसरे कीड़ों के साथ साथ
मुझे उस की लाश अपने पैरों के आस पास ही मिली

जिस के हुक्म पर मैं ने अपने मश्कीज़े का पानी
रेत पर गिरा दिया था

और नंगे पैर उस के पीछे हो लिया था
शायद मैं ने अंधेरे में

दरख़्त की शाख़ से उसे भी कुचल दिया था
मैं ने दरख़्त को देखा

मगर वहाँ तो सिरे से कोई दरख़्त था ही नहीं
मैं ने आगे बढ़ने की ठानी

फिर मुझे अंदाज़ा हुआ
कोई मेरे साथ साथ चल रहा है

मैं ने उसे मुख़ातिब किया
और उसे मश्कीज़े का पानी ज़ाए करने का हुक्म दिया

और उस के आगे आगे चलने लगा