EN اردو
आदमी का इंसाँ होना | शाही शायरी
aadmi ka insan hona

नज़्म

आदमी का इंसाँ होना

मोहम्मद अज़हर शम्स

;

सदियाँ क़तार-दर-क़तार खड़ी हैं
अपनी जगह साकित-ओ-जामिद

बड़े तजस्सुस से देखती हैं
एक दूसरे से बातें करती हैं

उसी एक मसअले पर
जिसे हल न कर पाने का अफ़्सोस है

पेशानी पे बनती बिगड़ती
लकीरों की शक्ल में नुमायाँ है

जिसे हल करने के लिए अल्लाह ने
कितने ही नबी और अवतार ज़मीन पर भेजे

उन्हों ने अपने कलाम से इस ज़मीं को सरफ़राज़ किया
वक़्त गुज़रता रहा गुज़रता रहा गुज़रता रहा

मगर मसअला वैसे का वैसा ही है अब भी
बिल्कुल पहले की तरह

बल्कि पहले से भी ज़्यादा ख़ौफ़नाक शक्ल में
वही मसअला

आदमी के इंसान बनने का