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तिजारती हवा | शाही शायरी
tijarati hawa

नज़्म

तिजारती हवा

वज़ीर आग़ा

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वो दिन कैसे दिन थे
हवा मुझ से कहती

चलो साथ मेरे
चलो दोनों मिल कर तिजारत करें

दूर की सर-ज़मीनों के
लोगों से

पेंगें बढ़ाएँ
समुंदर की मौजों को हम पार कर के

घने सुर्ख़ शहरों में मौजें उड़ाईं
मगर मैं ये कहता

मुझे सम्त से कुछ भी लेना नहीं है
कि हर सम्त

साहिल पे बैठी चट्टानों से
सर फोड़ती है

वहीं फिर चट्टानों के क़दमों में
दम तोड़ती है

नहीं मैं ये कहता
मुझे दूर देसों को जाना नहीं है

मुझे तो समुंदर के अंदर ही रहना है
व्हीलों से और शार्कों से भरे

गहरे सागर में चारों तरफ़ घूमना है
मुझे उन जज़ीरों से भी दूर रहना है

जो मीठे नग़्मों साइरन का जादू जगाए
घनी नींद तक़्सीम करने पे मामूर हैं

हवा मुझ से कहती
चलो साथ मेरे

मगर मैं समुंदर के नमकीन पानी का आदी
मुझे क्या पड़ी थी कि मैं

सर-फिरी उस हवा की कोई बात सुनता
किसी साहिली शहर के पब पब के अंदर

लहू ऐसे मशरूब की तह में
तलछट की सूरत शराबोर होता

मुझे क्या पड़ी थी
हटो

सुर्ख़ मशरूब की तह से
छँगुली पे रख कर निकालो न मुझ को

दिखाओ न सब को
मैं सागर का बासी

मुझे क्या पड़ी थी
मैं इक साहिली शहर के पब के अंदर

लहू ऐसे मशरूब की तह में
तलछट की सूरत शराबोर होता

मुझे क्या पड़ी थी