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आरज़ू-ए-हयात | शाही शायरी
aarzu-e-hayat

नज़्म

आरज़ू-ए-हयात

वक़ार ख़ान

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ऐ आरज़ू-ए-हयात
अब की बार जान भी छोड़

तुझे ख़बर ही नहीं कैसे दिन गुज़रते हैं
ऐ आरज़ू-ए-नफ़स

अब मुआ'फ़ कर मुझ को
तुझे ये इल्म नहीं कितनी महँगी हैं साँसें

कि तू तो लफ़्ज़ है
बस एक लफ़्ज़ अध-मुर्दा

तिरे ख़मीर की मिट्टी का रंग लाल गुलाल
सुलगती आग ने तुझ को जना है और तू ख़ुद

इक ऐसी बाँझ है जिस से कोई उम्मीद नहीं
तू ऐसा ज़हर है जो पी के कोई भी इंसाँ

ख़ुद अपने आप को कोई ख़ुदा समझता है
तू इक शजर है जो बस धूप बाँटता ही रहे

तू इक सफ़र है जो सदियों से बढ़ता जाता है
तू ऐसा दम है जो मुर्दों को ज़िंदा करता है

तू वो करम है जो हर इक करीम माँगता है
तू वो तलब है जिसे ख़ुद ख़ुदा भी पूजते हैं

तू वो तरब है जिसे ख़ुद ख़ुशी भी माँगती है
तू मुझ को जितने भी अब शोख़ रंग दिखलाए

तू चाहे ज़िंदगी को मेरे पास ले आए
वक़ार अब तिरे क़दमों में गिरने वाला नहीं

ऐ आरज़ू-ए-हयात
अब मैं पहले वाला नहीं