वतन की धरती से दूर
जब वतन के मारे
बरहना तन और तही-शिकम की तलब की शिद्दत
से हो के मजबूर
जलते सहरा की वुसअ'तों में
मुक़य्यद-ए-नार हो गए हैं
न तौक़-ए-आहन
न बेड़ियाँ हैं
न है सलासिल का बोझ तन पर
झुलसते सहरा की वुसअ'तों में
सरों पे सूरज की छतरियाँ हैं
बदन से आब-ए-मशक़्क़त-ए-बे-सुकूँ की
नहरें रवाँ-दवाँ हैं
नज़्म
इफ़रीत
याक़ूब तसव्वुर