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रुख़्सती | शाही शायरी
ruKHsati

नज़्म

रुख़्सती

सुहैल सानी

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मिरी गुड़िया तिरी रुख़्सत का दिन भी आ गया आख़िर
सिमट आया है आँखों में तेरा बीता हुआ बचपन

अभी कल की ही बातें हैं तो इक नन्ही सी गुड़िया थी
अभी कल ही तो बाबा से बड़ी ज़िद कर के माँगे थे

गुलाबी रंग के कपड़े वो जूते तितलियों वाले
अभी कल ही तो लाया था मैं पहली बार इक चूड़ी

जिसे जब तुम ने पहना तो कलाई से बड़ी निकली
फिसल कर हाथ से तेरे तुझे ग़ुस्सा दिलाती थी

अभी कल ही तो बाबा को पकड़ने भेजती थीं तुम
कभी उड़ती हुई चिड़िया कभी तारे कभी चंदा

और अब ऐसा है कि वक़्त-ए-जुदाई सर पे आया है
तिरी बारात ले कर आ गया है तेरा शहज़ादा

ब-ज़ाहिर ख़ुश खड़ा हूँ मैं मगर टूटा है दिल मेरा
बजी है जब से शहनाई तड़ उट्ठा है दिल मेरा

मिरे आँगन में ठहरेंगी तिरी यादें तिरी बातें
चली जाएगी तेरे साथ ही रौनक़ मिरे घर की

ये मेरे साथ छुप छुप कर हज़ारों बार रोएँगे
तिरी रुख़्सत पे ऐ बेटी दर-ओ-दीवार रोएँगे