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तुम रूह के साज़ पे | शाही शायरी
tum ruh ke saz pe

नज़्म

तुम रूह के साज़ पे

ज़ाहिद हसन

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तुम रूह के साज़ पे गीत गाती रहो
मैं तन की ख़ैर माँगता हूँ

हमें आज़ादी की ये सदी अारियतन मिली है
उस का इसराफ़ एहतियात माँगेगा

तुम कुछ एहतियात बचा रखना
मैं जंगलों के सफ़र से सलामत लौट आया

तो तुम से मुस्तआ'र ले लूँगा ये एहतियात
तुम अपने घर की अँगेठी में कड़कड़ाती लकड़ियों के कोएलों से

राख बनाना
और अपने लहू लगे दामन में कुछ राख बचा रखना

मैं क़ाफ़िला जंगलों में गँवा आया हूँ
राख गुम-शुदा लोगों की इत्तिलाअ' है

तुम इस इत्तिलाअ' की हिफ़ाज़त करना
जब मैं जंगलों के सफ़र से लौटूँ

तो मुझे ख़बर करना
हमें आज़ादी की ये सदी अारियतन मिली है

उस का इसराफ़ एहतियात माँगेगा
तुम कुछ एहतियात बचा रखना

एहतियात ब-हर-तौर ज़रूरी है