बड़ी तकलीफ़ थी तहरीर को मंज़िल पे लाने में
तनाव का अजब इक जाल सा फैला था चेहरे पर
खिंचे थे अब्रूओं में सीधे ख़त
पेशानी पर आड़ी लकीरें थीं
ख़मीदा होते गाहे लब
कभी मिज़्गाँ उलझ पड़ती थीं बाहम
गिरा कर पर्दा-ए-चश्म अपनी आँखों पर
ग़र्क़ हो जाती सोचों में
कि अफ़्साने में दीवाने का क्या अंजाम लिक्खूँ
और उसी में दोपहर ढल गई
नज़र खिड़की की जानिब जब उठी तो
देखा शाम आती है अज़्मत से
शजर पत्ते अजब से नूर में रौशन हैं
शामिल हैं बहुत से रंग जिस में
क़ुर्मुज़ी किरनों ने
सब्ज़े को शफ़क़-गूँ सा मुनअ'किस कर के
मलाकूती फ़ज़ा में ढाल कर
मेरी निगाहों तक बड़ी उजलत से लाया है
मैं उस को देखने में गर न कुछ पल ख़ुद को गुम करती
तो माथे के शिकन चेहरे पे छाया ये तनाव
बे-सुकूँ आँखें
सभी मिल कर मिरे दिल को बुझा देते

नज़्म
शफ़क़-गूँ सब्ज़ा
तरन्नुम रियाज़