मातमी शाम उतर आई है फिर बाम तलक
घर की तन्हाई को बहलाए कोई कैसे भला
अपने ख़्वाबों के तआ'क़ुब में गए उस के मकीं
मुंतज़िर हैं ये निगाहें कि हैं बुझते से दिए
राह तकने के लिए कोई बचेगा कब तक
फिर ये दीवारें भी ढह जाएँगी

नज़्म
आबाई घर
तरन्नुम रियाज़
नज़्म
तरन्नुम रियाज़
मातमी शाम उतर आई है फिर बाम तलक
घर की तन्हाई को बहलाए कोई कैसे भला
अपने ख़्वाबों के तआ'क़ुब में गए उस के मकीं
मुंतज़िर हैं ये निगाहें कि हैं बुझते से दिए
राह तकने के लिए कोई बचेगा कब तक
फिर ये दीवारें भी ढह जाएँगी