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लोगों का कुम्बा | शाही शायरी
logon ka kumba

नज़्म

लोगों का कुम्बा

ज़ाहिद डार

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पूरे कुँबे से नफ़रत या प्यार करो
एक से नफ़रत एक से प्यार ये क्या है

लोग सभी इक जैसे हैं
जाहिल हैं तो सब जाहिल हैं आलिम हैं तो सब के सब

ज़ुल्म किसी इक शख़्स से तो मख़्सूस नहीं है
जिस को तुम ज़ालिम कहते हो वो भी

बचपन में मा'सूम था ख़ुश्बू की मानिंद ज़रर से ख़ाली
और जिस को विद्वान हो कहते उस का ज़ेहन

कल तक चट्टे काग़ज़ जैसा निर्मल और बे-दाग़ था
ज़ालिम ने उस कुँबे ही में ज़ुल्म की शिक्षा पाई

और विद्वान ने भी ये उल्टी सीधी बातें
लोगों ही से सुन कर ज़ेहन में भर रखी हैं

ये लोगों का कुम्बा
एक महान दरख़्त है हम सब पत्ते हैं

हरे या सूखे मीठे हैं या कड़वे
अपना क्या है

पेड़ का रस हम सब में यकसाँ जारी-ओ-सारी है