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(2) बे-चेहरगी | शाही शायरी
(3) be-chehragi

नज़्म

(2) बे-चेहरगी

मुनीर अहमद फ़िरदौस

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अपनी तारीख़ के अहरामों में उतर कर देखें
अज़ाब-ए-मुसलसल की ये फ़स्ल

हमारे पास तारीख़ की निशानी है
या सुर्ख़ सियाही से हमारी नई तारीख़ लिखी जा रही है

वो आँखें, वो हाथ, वो चेहरे
अब कौन ढूँडे...?

जिन्हों ने हादसों को यहाँ चलना सिखाया
अगर वो मिल भी जाएँ....

तो उन्हें कौन पहचानेगा?
उन्हों ने तो अपने चेहरे सब में बाँट दिए

अब तो हर तरफ़ एक जैसे ही चेहरे हैं
हर कोई बे-चेहरा है

यहाँ तो बस एक ही वक़्त आ के ठहरा है
ख़सारों का कड़ा पहरा है

मगर मुमकिन है...
बे-चेहरगी के अज़ाब के उस पार

हम सब के चेहरे क़ैद हों
जिस दिन सब को अपने चेहरे मिल गए

तो दिल भी मिल जाएँगे