वो इक शय
कि जिस के लिए पाक तीनत बुज़ुर्गों ने
अपने बदन ज़ेहन के सारे जौहर गँवाए
लहू के गुहर
ख़ार-ज़ारों की पहनाइयों में लुटाए
वो इक शय
जिसे उन जियाले बुज़ुर्गों ने जेब-ओ-गरेबाँ
दिल-ओ-जाँ से भी बढ़ के समझा
जो हासिल हुई तो
अभी बाम-ओ-दर से सियह-रात लिपटी हुई थी
सफ़र की थकन या
गिराँ-बारी उम्र ने
उन के आ'साब को मुज़्महिल कर दिया था
उन्हों ने ये सोचा
ख़ुदा जाने सूरज निकलने तलक क्या से क्या हो
हसीं बे-बहा शय के हक़दार
उन के जवाँ-साल बच्चे हैं
उस की हिफ़ाज़त वही कर सकेंगे
जवाँ-साल बच्चे
अभी बिस्तर-ए-इस्तिराहत पे सोए हुए थे
जगाए गए
सुब्ह-ए-काज़िब की धुंदलाहटों में
चमकती हुई वो हसीं शय
विरासत में उन को मिली थी
मगर सब ने देखा था सूरज निकलने पे
उन सुस्त-ओ-चालाक बच्चों
के हाथों में महफ़ूज़-ओ-क़ीमती शय
ब-तदरीज अपनी चमक खो रही थी
तिलिस्म-ए-तसव्वुर नहीं ये हक़ीक़त है
वो बे-बहा शय
कि जिस के लिए
हर सऊबत गवारा है
मंज़िल नहीं
जुस्तुजू है
वो इक चीज़ जिस पर निछावर
जियालों का रौशन लहू है
फ़क़त रंग-ओ-बू ही नहीं
गुलिस्ताँ की हुमकती हुई आरज़ू है
हर इक नफ़अ' जाएज़ नुक़सान के बत्न से है
उन्हों ने जो हासिल किया वो ज़ियादा था
और आख़िर शब के कुछ ख़्वाब को जो गँवाया
वो कम था
इसी ना-तनासुब हुसूल-ओ-ख़सारा का रद्द-ए-अमल है
कि मंज़िल की आग़ोश में भी
उन्हें सुख नहीं है
नज़्म
हैं ख़्वाब में हुनूज़
ज़हीर सिद्दीक़ी