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हाजी-बाबा | शाही शायरी
haji-baba

नज़्म

हाजी-बाबा

ज़ुबैर रिज़वी

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पुरानी बात है
लेकिन ये अनहोनी सी लगती है

सुना है जब कभी शहर-ए-सबा के हाजी-बाबा
अपने शागिर्दों को दर्स-ए-आख़िरी देते

सरों पर उन के दस्तार-ए-फ़ज़ीलत बाँधते
काले अमामों में सब ही शागिर्द सफ़-बस्ता खड़े

ये अहद करते थे
ख़ुदावंदा

हमारे इल्म में तो ख़ैर-ओ-बरकत दे
हमें तौफ़ीक़ दे हम हाजी-बाबा की तरह

शहर-ए-सबा के चार कोनों में नए मकतब बनाएँ
दर्स-गाहों की बिना डालें

सुना है हाजी-बाबा
अपने शागिर्दों को चार हिस्सों में जब तक़्सीम करते तो

ज़मीं के चार कोनों से सदा-ए-मर्हबा आती
हर इक सू

मुश्क की ख़ुश्बू फ़ज़ा में फैल सी जाती
बहुत दिन बा'द फिर ऐसा हुआ था हाजी-बाबा ने

ज़मीं के चार कोनों से धुआँ उठते हुए देखा
जले हर्फ़ों की रूह मातम-कुनाँ

शहर-ए-सबा में मुद्दतों फिरती रही तन्हा
सुना है फिर कभी

शहर-ए-सबा के हाजी-बाबा ने दर-ए-मकतब नहीं खोला
किसी पर कोई काला अमामा फिर नहीं बाँधा