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वापसी | शाही शायरी
wapsi

नज़्म

वापसी

ताज सईद

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ख़िज़ाँ के जाते ही रुत का पाँसा पलट गया है
बहार की ख़ुशबुओं से गुलशन का ज़र्रा ज़र्रा महक रहा है

ज़मीं की रंगत बदल गई है
कभी तग़य्युर जो मौसमों का

निराले गीतों के साथ आया
तो ज़िंदगी की अज़ीज़-तर साअ'तों के मालिक

भड़क उठे थे
पलक पलक पर कई कहे अन-कहे फ़साने

मचल गए थे
तो क़ंद-ए-गुफ़्तार में भी तल्ख़ी रची हुई थी

फ़ज़ा की आलूदगी का शिकवा था उन के लब पर
शुनीदा बातों का ख़ौफ़ उन के दिलों में ऐसा बसा हुआ था

कि वो किसी बात पर यक़ीं भी न करने पाते
गिरे थे उन की समाअ'तों और बसारतों पर दबीज़ पर्दे

कभी जो मौसम ने रुख़ जो बदला
तो उन के होश-ओ-हवास जागे

उन्हों ने क़ुदरत के रंग देखे
तो ज़िंदगी का यक़ीन आया

बहार की सम्त लौट आए