तिरी आरज़ू
जिसे मैं ने सब से अलग रक्खा
उसे दिल के नर्म ग़िलाफ़ से
कभी झाँकने भी नहीं दिया
कि ये ख़्वाहिशों के हुजूम में
कहीं अपनी क़दर गँवा न दे
तिरी छोटी छोटी निशानियों को
बड़े क़रीने से पोटली में लपेट कर
कभी कोठरी में छुपा दिया
कभी टाँड पर रखे देगचे में गिरा दिया
कि परे परे रहें चश्म-ए-चर्ख़-ए-कबूद से
कभी ज़ेर-ए-लब तिरा नाम भी
कहीं ले लिया
तो तमाम शब उसी वसवसे में गुज़र गई
कि ख़मोशियों में ढला हुआ ये सुरूद-ए-ग़म
किसी कम-शनास ने सुन लिया
तो न बच सकेगा वक़ार-ए-हुर्मत
उसी एहतियात में कट गई है मिरी हयात की दोपहर
मिरे चारागर तुझे क्या ख़बर
मुझे आज भी तिरी लाज का वही पहले जैसा ख़याल है
न तो फ़िक्र-ए-शाम-ए-फ़िराक़ है
न उमीद-ए-सुब्ह-ए-विसाल है
नज़्म
तुझे क्या ख़बर
तालिब अंसारी