एक आरास्ता बंद कमरा
जिस के दरवाज़े ख़ारज़ार की तरफ़ खुलते हैं
जहाँ हमारे तलवों पर तारीक राहें नक़्श कर के
हमें ख़सारों के सफ़र पर भेजा जाता है
हम हमेशा गर्द-ओ-ग़ुबार कमा कर लाए
मगर कभी इंकार को रहनुमा नहीं जाना
हमारे ज़ेहन के उफ़ुक़ पर
सूरज के तुलू होने पर पहरे हैं
कि बंद कमरे में
अँधेरों की निगहबानी में हमारा मुक़द्दर लिखने वालों का
मुक़द्दर कौन लिखता है?
शोर मचा कर हम में सुकूत बाँटने वाले
सुकूत कहाँ से लाते हैं
नज़्म
(1) पार्लियामेंट
मुनीर अहमद फ़िरदौस