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शाम का सहर | शाही शायरी
sham ka sahar

नज़्म

शाम का सहर

तरन्नुम रियाज़

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अभी परछाइयाँ ऊँचे दरख़्तों की
जुदा लगती हैं रंग-ए-आसमाँ से

ज़रा पहले गया है इक परिंदा बाग़ की जानिब
उधर से आने वाले एक तय्यारे की रंगीं बतियाँ

रौशन नहीं उतनी
वो निकली हैं सभी चमगादड़ें अपने ठिकानों से

बड़ा मुबहम सा आया है नज़र ज़ोहरा फ़लक के बीच
टी कोज़ी के नीचे है गर्म अब भी बचा पानी

किसी ने मुझ को अंदर से नहीं आवाज़ भी दी
मैं

ज़रा बरामदे में और रह लूँ
फ़ुसूँ में शाम के प्रवासी बह लूँ