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ज़ुल्मत है तो फिर शो'ला-ए-शब-गीर निकालो | शाही शायरी
zulmat hai to phir shoala-e-shab-gir nikalo

ग़ज़ल

ज़ुल्मत है तो फिर शो'ला-ए-शब-गीर निकालो

सलीम शाहिद

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ज़ुल्मत है तो फिर शो'ला-ए-शब-गीर निकालो
ख़ुर्शीद कोई शब का जिगर चीर निकालो

कटता है कभी नाख़ुन-ए-अंगुश्त से कोहसार
पत्थर न कुरेदो कोई तदबीर निकालो

मैं गुल हूँ मुझे शाख़ पे खिलना है ब-हर-तौर
तुम ख़ाक से गुल-ख़ेज़ी की तासीर निकालो

तुम रोग़न-ए-ख़ूँ बुर्रिश-ए-शमशीर से भर कर
जो चाहो मिरे जिस्म से तस्वीर निकालो

जो ज़ेहन में था ख़्वाब में देखा है वही कुछ
जो चाहो अब इस ख़्वाब की ताबीर निकालो

ये शहर-ए-शिकस्ता है नए शहर की बुनियाद
इक ताज़ा दर-ओ-बाम की ता'मीर निकालो

औराक़-ए-शब-ए-रफ़्ता सियह होंगे मगर तुम
इस बाब से ये सुर्ख़ी-ए-तहरीर निकालो