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ज़ुल्मत-ए-दश्त-ए-अदम में भी अगर जाऊँगा | शाही शायरी
zulmat-e-dasht-e-adam mein bhi agar jaunga

ग़ज़ल

ज़ुल्मत-ए-दश्त-ए-अदम में भी अगर जाऊँगा

असर सहबाई

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ज़ुल्मत-ए-दश्त-ए-अदम में भी अगर जाऊँगा
ले के हम-राह मह-ए-दाग़-ए-जिगर जाऊँगा

आरिज़-ए-गुल हूँ न मैं दीदा-ए-बुलबुल गुलचीं
एक झोंका हूँ फ़क़त सन से गुज़र जाऊँगा

ऐ फ़ना टूट सकेगी न कभी कश्ती-ए-उम्र
मैं किसी और समुंदर में उतर जाऊँगा

देख जी भर के मगर तोड़ न मुझ को गुलचीं
हाथ भी तू ने लगाया तो बिखर जाऊँगा

एक क़तरा हूँ मगर सैल-ए-मोहब्बत से तिरे
हो सके जो न समुंदर से भी कर जाऊँगा

दूर गुलशन से किसी दश्त में ले जा सय्याद
हम-सफ़ीरों के तरानों में तो मर जाऊँगा

सेहन-ए-गुलशन में कई दाम बिछे हैं ऐ 'असर'
उड़ के जाऊँ भी अगर मैं तो किधर जाऊँगा