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ज़ुल्म मुझ पर शदीद कर बैठे | शाही शायरी
zulm mujh par shadid kar baiThe

ग़ज़ल

ज़ुल्म मुझ पर शदीद कर बैठे

सय्यद मोहम्मद असकरी आरिफ़

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ज़ुल्म मुझ पर शदीद कर बैठे
फिर वो कार-ए-यज़ीद कर बैठे

है-वफ़ाई भी वो निभा न सके
हम वफ़ा की उमीद कर बैठे

जिन पे मरता था तू वो सद-अफ़्सोस
मिरे मरने पे ईद कर बैठे

किस क़दर ख़ुश-नसीब होगा वो जो
तिरी ख़्वाबों में दीद कर बैठे

हम थे ख़ुशियों को बेचने निकले
दर्द-ओ-ग़म की ख़रीद कर बैठे

काश नफ़रत के लीडरों को कोई
दो तमांचे रसीद कर बैठे

ऐसी दौलत का फ़ाएदा क्या है
जो ख़ुदा से बईद कर बैठे

कौन जाने कि इश्क़ में कितने
अपनी मिट्टी पलीद कर बैठे

मिट गई क़द्र मर गए आदाब
हम यूँ ख़ुद को जदीद कर बैठे

काश ये मेरी शाइ'री 'आरिफ़'
उस को मेरा मुरीद कर बैठे