ज़ुल्म की कुछ मीआ'द नहीं है
दाद नहीं फ़रियाद नहीं है
क़त्ल हुए हैं अब तक कितने
कू-ए-सितम को याद नहीं है
आख़िर रोएँ किस को किस को
कौन है जो बर्बाद नहीं है
क़ैद चमन भी बन जाता है
मुर्ग़-ए-चमन आज़ाद नहीं है
लुत्फ़ ही क्या गर अपने मुक़ाबिल
सतवत-ए-बर्क़-ओ-बाद नहीं है
सब हों शादाँ सब हों ख़ंदाँ
तन्हा कोई शाद नहीं है
दावत-ए-रंग-ओ-निकहत है ये
ख़ंदा-ए-गुल बर्बाद नहीं है
ग़ज़ल
ज़ुल्म की कुछ मीआ'द नहीं है
अली सरदार जाफ़री