ज़ुल्फ़ तेरी हुई कमंद मुझे
इस में बाँधा है बंद बंद मुझे
ख़ाक सेती सजन उठा के किया
इश्क़ तेरे ने सर-बुलंद मुझे
तेरे ग़म सूँ हुआ हूँ दीवाना
न किया नफ़अ कोई पंद मुझे
नहीं जग बीच और ऐ दिलबर
वस्ल बिन तेरे सूद-मंद मुझे
मैं गिरफ़्तार हूँ तिरे मुख पर
जग में नईं और कुछ पसंद मुझे
'फ़ाएज़' इस तौर से हुआ है मलूल
तूँ जलाता है जियूँ सिपंद मुझे
ग़ज़ल
ज़ुल्फ़ तेरी हुई कमंद मुझे
सदरुद्दीन मोहम्मद फ़ाएज़