ज़ुल्फ़ से निस्बत-ए-नाकाम लिए फिरते हैं
धूप में शाइबा-ए-शाम लिए फिरते हैं
मुर्दा बस्ती है ख़बर कौन किसी की लेगा
साथ में दुश्मन-ओ-दुश्नाम लिए फिरते हैं
अब जुनूँ में भी तो बेहोश नहीं दीवाने
रू-ब-सहरा हैं दर-ओ-बाम लिए फिरते हैं
सर्द चुप-चाप ज़मीनों की तरह ही हम लोग
अपने अंदर कोई कोहराम लिए फिरते हैं
हर-क़दम खुलता है इक बंद गली की जानिब
हर-नफ़स ख़दशा-ए-अंजाम लिए फिरते हैं
मुनफ़रिद अपने ख़द-ओ-ख़ाल न ख़ाका अपना
वो जो अगलों ने रखा नाम लिए फिरते हैं

ग़ज़ल
ज़ुल्फ़ से निस्बत-ए-नाकाम लिए फिरते हैं
सय्यद रज़ा